समाज सुधार एक अवधारणा
दिल्ली , समाजहित एक्सप्रेस (रघुबीर सिंह गाड़ेगांवलिया) l प्राचीनकाल से धर्म और रीतिरिवाज के नाम पर कुछ प्रथाओं का प्रचलन होता रहा है जो मानवीय भावनाओं या मूल्यों के अनुरूप नहीं थे l जिन्हें समाज के कुछ प्रबुद्ध समाज सुधारको ने समाज में सुधार लाने हेतु चुनौतियों का सामना करते हुए रूढ़िवादी परम्पराओ के खिलाफ आवाज बुलंद की, जिसके प्रभाव से धार्मिक और सामाजिक कुरीतियो से समाज उभरा भी है l आज भी कई जगह समाज में मौजूद धार्मिक और सामाजिक प्रथाओं को महसूस किया जाता है जिस पर समाजसेवी बाबूलाल बारोलिया (सेवानिवृत) ने अपने सामाजिक सुधार के लिये प्रगतिशील विचारों को लिखित में समाजहित एक्सप्रेस को प्रेषित किया जो आपके समक्ष प्रस्तुत है :
✍ बाबू लाल बारोलिया, अजमेर
समाज सुधार का अर्थ है प्राचीनकाल से चली आ रही रूढ़िवादी परम्परा और समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करना। जैसा कि कहा गया है कि एक पीढ़ी की परंपरा दूसरी पीढ़ी के लिए एक रिवाज बन जाता है। समाज में प्रचलित रिवाज भी समय और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होते रहते है। सवाल यह है कि किसी जमाने में समाज के पूर्वजों ने तत्कालीन समय और परिस्थितिवश ही कुछ परंपराएं प्रारंभ की होगी और तत्पश्चात ये रीतिरिवाज पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे है। इनको चला भी इसलिए रहे हैं कि ये रीतिरिवाज पूर्वजों की देन है। अब दूसरा सवाल यह उठता है कि क्या वर्तमान परिस्थितियों को मध्य नजर रखते हुए प्राचीन रीति रिवाज कह दें या सामाजिक उत्थान में अवरोधक के रूप में सामाजिक बुराइयां मान कर इनको समाप्त किया जाना चाहिए अथवा इसमें सुधार किया जाना चाहिए। इस कार्य हेतु हर समाज में समाज सुधार के नाम से विभिन्न संगठन और संस्थाएं भी बनी हुई है जो कहने को तो समाज सुधार पर कार्य करना है लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ सुधार दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है।
हर समाज में कुछ ना कुछ बुराइयां होती हैं। इन बुराइयों को न केवल परंपराओं द्वारा स्वीकार किया जाता है, बल्कि अक्सर उन्हें धार्मिक दृष्टिकोण से ठीक से चित्रित करने का प्रयास किया जाता है। इसलिए इन बुराइयों की जड़ें इतनी गहरी जम चुकी हैं कि इन्हें बदलना या खत्म करना बहुत मुश्किल है। जो लोग वास्तव में समाज में व्याप्त बुराइयां और रूढ़िवादी परम्पराओं को खत्म करना चाहते अथवा उसमें कुछ सुधार करना चाहते हैं तो सबसे प्रथम अवरोधक समाज के शिक्षित और समाज सुधारक ही बनते है। ये समाज सुधारक ऐसे लोगों को हिन्दू संस्कृति विरोधी करार दिया जाता है।ऐसे लोग अपने आपको समाज के ठेकेदार मान बैठे है जिसका प्रमुख कारण उनका आर्थिक रूप से सम्पन्न होना अथवा किसी विशिष्ठता के कारण ताल ठोक कर बोलते है कि हमारे पूर्वजों की चलाई परंपरा हिंदू संस्कृति को दर्शाती है अतः बंद नहीं होनी चाहिए। यह मेरा व्यक्तिश:अनुभव है । मैं जहां भी समाज सुधार की बैठकों में जाता हूं अथवा सोसियल मीडिया पर लिखता हूं तो वहां यही सब कुछ कहने सुनने को मिलता है। अब समझ में यह नहीं आता कि ये सामाजिक संगठन बनाकर समाज में किस प्रकार का सुधार करना चाहते है।क्या इन समाज सुधारक कहे जाने वाले लोगों ने समाज के उन गरीब, असहाय, और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की पीड़ा को महसूस किया है कि समाज में व्याप्त इन बुराइयों और रूढ़िवादी परम्पराओं से कितने आहत रहते है। केवल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के खातिर अन्य लोगों को क्यों पिछड़ेपन के दल दल में ही रहने के लिए मजबूर किया जाता है। क्या समाज के उन लोगों को जो गरीबी का जीवन जी रहे है उनको साथ लेकर नहीं चलना चाहिए । मैं जब कभी भी समाज सुधार की बैठकों में उपस्थित हुआ हूं वहां यही महसूस किया है कि वहां समाज सुधार की बातें कम या नगण्य होती है लेकिन फिर भी समाज सेवक के रूप में लोगों को माला साफा और शॉल से सम्मान अधिक किया जाना देखा है । सम्मान करना भी चाहिए क्योंकि जब समाज में किसी प्रकार सामूहिक आयोजन किया जाता है ये समाज सेवक कहे जाने वाले लोग उस आयोजन में तन मन धन से सहयोग करते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है।
अतः समाज सुधार का तात्पर्य समाज की उन बुराइयों को दूर करना है, जिनका सामाजिक व्यवस्था, नियंत्रण आदि पर बुरा प्रभाव पड़ता है और जो जनमानस को प्रभावित करती हैं। इसका मतलब है कि पुरानी भावनाओं को परिवर्तित करना सामाजिक सुधार माना जा सकता है।
प्राचीन काल से समाज में चल रही कुरीतियों और रीति-रिवाजों के माध्यम से सती प्रथा, बाल विवाह और शूद्रों या छोटी जाति के लोगों के साथ छुआछूत जैसी महिलाओं के शोषण को दूर किया गया है और उनमें सुधार किया गया है और उचित गतिविधियाँ, कुरीतियाँ, जाति व्यवस्था, छुआछूत आदि को हटाकर उन्हें समाज में उचित स्थान दिया गया है। समाज सुधार में कई लोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
अंत में मेरा समाज सुधारकों से यही निवेदन है कि समाज में सभी प्रकार के छोटे, बड़े, गरीब, असहाय और कमजोर परिवारों की दशा और दिशा को ध्यान में रखते हुए आवश्यक सुधार की ओर कदम बढ़ाना चाहिए ना कि जो सुधार करना चाहते है उनका अवरोधक बनना चाहिए।
(डिस्क्लेमर: इस लेख में लेखक के निजी विचार हैं l लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है, इसके लिए समाजहित एक्सप्रेस उत्तरदायी नहीं है l)