त्यागमूर्ति स्वामी आत्मारामजी ‘लक्ष्य’ जी का विस्तृत जीवन वृतांत
त्यागमूर्ति स्वामी आत्मारामजी ‘लक्ष्य‘ जी का विस्तृत जीवन वृतांत
जब रैगर जाति सामन्त शाही धर्मनीति के अन्दर बुरी तरह कुचली जा रही थी, तब रैगर बन्धु मनुष्य से दूर पशुतर जीवन व्यतीत कर रहे थे और जब कुछ नवयुवक अपने इस सामाजिक व्यवस्था से छुटकारा पाने के लिये कुछ कर गुजरने के लिए व्यथित थे उस समय इन बिखरी हुई शक्तियों को एक सूत्र में पिरोने के लिये उसको एक निर्दिष्ट मार्ग देने के लिये उस परम पिता परमात्मा की कृपा से जयपुर राज्य के अन्तर्गत शिवदासपुरा ग्राम में श्री गणेशराम जी खोरवाल के यहां विक्रम सम्वत् 1964 (17 अगस्त 1907) की कृष्ण जन्माष्टमी को एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ । जिसका नाम कन्हैयालाल रखा गया । बालक कन्हैयालाल के पिता एवं माता श्रीमती पाँचा देवी बहुत ही साधु प्रकृति के व्यक्ति थे ।
ईश्वर अपने आगामी कार्यों की झलकी कई बार प्रकृति के द्वारा देता है । भगवान को शायद यह इष्ट था कि बालक कन्हैयालाल आगे चल कर रैगर जाति में एक सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात करें । इसके लिये सबसे आवश्यक था बालक को प्रारम्भ से ही पकाना, उसे कष्टसाध्य बनाना ,जिस प्रकार सोने को आग में डालकर पवित्र किया जाता है । उसी प्रकार उस परमपिता परमेश्वर ने बालक कन्हैयालाल जी को विपत्तियों पर विपत्ति आई उनकी जीवन के प्रथम तीन वर्ष पश्चात् जब इनके पिता की मृत्यु हुई और इसके पश्चात् जब इनकी माता का स्वर्गवास हुआ ।
बालक कन्हैयालाल अनाथ हो गये और इसी अवस्था में उनके जीवन का दूसरा (अध्याय) शुरू होता है । जबकि उनकी भुआजी दिल्ली में रहती थी उन्हें अपने पास पालन-पोषण हेतु ले आई । बुआ फूफा भी निर्धनि थे, अत: वह इन्हें किसी प्रकार की शिक्षा नहीं दिला सके । अभावों में पलता हुआ बाल निर्धनता के झकोरे खाता रहा । इन परिस्थितियों ने बालक के हृदय में दया का भाव भरा, और भरा उसमें करूणा का अथाह सागर शायद बालक कन्हैयालाल का बाल हृदय इस संसार से क्षुब्ध हो जाता परन्तु भुआ के मात्रवत स्नेह ने उन्हे जकड़े रखा और माता के प्यार से वंचित बालक के हृदय ने भुआ के स्नेह से ओत-प्रोत हो उसी में अपनी मां को प्राप्त किया ।
छोटी आयु में ही इच्छा न रहते हुए भी इनका विवाह हो गया । लेकिन यह अपने गृहस्थ जीवन से सन्तुष्ट नहीं थे । कुछ तो बचपन से ही इनके हृदय में जातीय सुधार सम्बन्धी अंकुर विद्यमान थे एवं इन्हें से प्रेरित होकर ही इन्होंने विवाह का विरोध भी किया । इनका गृहस्थ जीवन से असन्तुष्ट रहने का मुख्य कारण इनके विचारों का अपनी स्त्री के विचारों से ताल-मेल न होना था । इनकी धर्मपत्नी कुटिल स्वभाव की स्त्री थी उससे यह हमेशा दुखी रहा करते थे । यह भी शायद ईश्वर की पूर्व निश्चित योजना के अनुसार ही था अन्यथा यदि कन्हैयालाल को एक सुचरित्रा ग्रहणी मिल जाती तो वह उसी में उलझ जाते और कन्हैयालाल केवल कन्हैयालाल ही रह जाते ।
बचपन से ही श्री कन्हैयालाल जी कुशाग्र बुद्धि के थे इनको बचपन से ही भजन कीर्तन में अत्यधिक रूचि थी । जिसका मुख्य कारण यह था कि वह अपने साढू भाई श्री भगताराम रातावाल के घर में ही रहा करते थे एवं श्री भगतारामजी श्री स्वामी मौजीराम के मुख्य शिष्यों में से एक थे एवं सतसंगों में उनकी प्रमुख रूचि थी । इसीलिए अपने प्रारम्भिक अवस्था से ही यह भजन लिखा करते थे । दिल्ली क्लाथ मिल्स में जब से इन्होने कार्य करना प्रारम्भ किया वहां यह कुछ कबीर पंथ के अनुयायियों के सम्पर्क में आ गये । उनके साथ प्रतिदिन कार्य करने से एवं निरन्तर के सामीप्य के कारण शनै: शनै: यह कबीरदास जी के विचारों से प्रभावित होते रहे । उनके कबीर पंथी अनुयायियों के सम्पर्क में आने से इनका सम्बन्ध कबीर पन्थी महात्माओं से भी बढने लगा और उन पर इनकी प्रतिभा पूर्ण व्यक्तित्व का प्रभाव पडा एवं उन महात्माओं ने इनको अपने सम्प्रदाय में सम्मिलित करने का सफल प्रयास किया । इसके पश्चात् तो वह पूर्णतया कबीरपन्थी सम्प्रदाय के अनुयायी बन गए । अब इनका अधिक समय कबीरपन्थी साधुओं के साथ व्यतीत होने लगा कबीरपन्थी होने पर इनका पर्यटन भी बढ गया था पर्यटन में भ्रमण आदि में इनको बहुत सी कठिनाई उठानी पड़ी । श्री कन्हैयालाल जी स्वामी मौजीराम एवं स्वामी ज्ञानस्वरूप जी के शिष्यों से समय-समय पर शास्त्रार्थ किया करते थे । इनको शंका समाधान करने का बडा शोक था । एक बार तो पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार इनके अन्य कबीरपंथी साथियों का स्वामी मौजीराम जी के मध्य एक शास्त्रार्थ हेतु वृहद सत्संग दिन में गुरूद्वारा (वर्तमान श्री विष्णु मन्दिर) में हुआ था । इस सत्संग में दंगली भजनों के माध्यम से ही तर्को का खण्डन मण्डन हुआ श्री कन्हैयालाल जी कबीरपंथी पक्ष का नेतृत्व कर रहे थे, स्वामी मौजीराम जी के शिष्य भी इनकी प्रतिभा से प्रभावित हुए । तत्पश्चात् तो श्री कन्हैयालाल जी का एवं सत्संगीयों के साथ परस्पर सम्बन्ध घनिष्ट से घनिष्टतर होते गए, विशेषतया सर्व श्री राम स्वरूप जी जाजोरिया, श्री कंवरसेन मौर्य, श्री आसाराम जी सेवलिया, श्री शम्भुदयाल जी गाडेगांवलिया, श्री खुशहालचन्द मोहनपुरिया के साथ इनका विशेष प्रेम एवं सोहाद्र था । इकने अधिक सम्पर्क में आने से इनका कबीरपंथीयों से सम्बन्ध कम होता रहा एवं शनै: शनै: वैष्णव धर्म से प्रभावित होने लगे । एकेश्वरवाद के स्थान पर अवतारवाद में इनका विश्वास बढ़ता गया । समय-समय पर स्वामी मौजीराम एवं स्वामी ज्ञानस्परूप जी भी दिल्ली आते रहते थे । जिनसे यह प्रभावित होते रहे।
एक समय ‘गुरूद्वारा’ के समक्ष रात्रि में एक विशाल सत्संग हुआ जिसमें स्वामी ज्ञानस्वरूप जी उपस्थित थे । इस विशाल सत्संग में श्री कन्हैयालाल जी ने कबीरपंथी सम्प्रदाय का पूर्णतया त्याग करके स्वामी ज्ञानस्वरूप जी महाराज का शिष्यत्व ग्रहण किया । कन्हैयालाल जी अपने दाम्पत्य जीवन से बहुत दुखी रहते थे इसलिए अपने इस सांसारिक मोहमाया की जन्जीर तोड़कर एक धोती एवं लोटा लेकर घर को पूर्णतया त्याग कर निकल पडे । घर से निकल कर सीधे स्वामी ज्ञानस्वरूप जी के टडू आदमी के आश्रम सिन्ध में पहॅुचे । स्वामी जी ने इनकी कई परीक्षाऐं ली और इन्हें घर वापस जाने के लिए दबाव दिया लेकिन अन्तत इन सभी परीक्षाओं में वे उत्तीर्ण हुए, इनके घर त्याग के पीछे भी दिल्ली के सत्संगियों की प्रेरणा थी, स्वामी ज्ञानस्वरूप जी ने इनको अंगीकार किया इनको साधुता की दीक्षा दी । स्वामीजी ने इनका नाम आत्माराम रखा स्वामीजी यह पूर्णतया जानते थे कि शिक्षा के बिना कोई भी व्यक्ति न स्वयं की नही समाज की उन्नति कर सकता है । इस हेतु स्वामी जी ने आत्माराम को पढ़ाने का निश्चय किया प्रारम्भिक शिक्षा के लिए स्वामीजी ने इसके लिए पं. लच्छिराम नामक अध्यापक रखा । श्री आत्माराम जी ने इनसे विचार सागर नाम ग्रन्थ का अध्ययन किया स्वामी ज्ञानस्वरूप जी ने सोचा कि शास्त्रों के अध्ययन के लिए संस्कृत का ज्ञान अत्यावश्यक है एवं श्री आत्माराम जी को संस्कृत का अध्ययन करने की अधिक इच्छा थी स्वामी जी ने इनको ”श्री ताराचंद जय राम दास संस्कृत पाठशाला”हैदराबाद (सिन्ध) में प्रवेश दिलाया इनके अध्यापक का नाम श्री फतेहचंद जी था । यह हैदाराबाद में स्वामी ज्ञानस्वरूप जी के एक अन्य आश्रम में अकेले रहने लगे एवं नियमितरूप से विद्या अध्ययन करने लगे इस छोटे आश्रम के चारों तरफ चार दिवारी एवं एक छोटी सी कुटीया थी श्री आत्माराम जी ने बड़े परिश्रम के साथ एवं लगन के साथ मध्यमा परीक्षा पास की । श्री आत्माराम की बुद्धि एवं मेघा की प्रशंसा उनके अध्यापकगण भी मुक्त कण्ठ से किया करते थे । श्री आत्माराम जी ने ”व्याकरण भूषणाचार्य” की परीक्षा काशी विद्यापिठ के पास करने हेतु काशी भी गये । वहाँ भी उन्होंने अपने विद्या अध्ययन में एकाग्रचित हो ध्यान लगाया, इनका शिक्षा भाग श्री स्वामी ज्ञानस्परूप जी के अतिरिक्त दिल्ली स्थित स्वामी मौजी राम जी एवं स्वामी ज्ञानस्परूप जी द्वारा संचालित सत्संग सभा द्वारा वहन किया जाता था । ”श्री सनातन धर्म सभा” (वर्तमान श्री स्वामी मौजी राम सतसंग सभा) सर्वरूपेण उनको नियमित रूप से आर्थिक सहायता प्रदान करती रही । व्याकरण भूषणाचार्य की परीक्षा पास करने के उपरांत स्वामी ज्ञानस्परूप जी ने आत्माराम जी को बताया की उनकी इतनी ही शिक्षा पर्याप्त है एवं तत्पश्चात् उनको रैगर जाति की दुर्दशा का सजीव चित्र प्रस्तुत करते हुए उन्हे पूर्णतया वास्तविकता से अवगत कराया । एवं उन्हे निर्देश दिया की जाति सुधार कार्यों में प्रवृत हो जाये ।
यहा एक विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि स्वामी जी ने दीक्षा के रूप में श्री आत्मारामजी को एक ‘लक्ष्य’ समाज सुधार एवं उत्थान करना प्रदान किया जिसको आत्माराम जी ने अपना ‘लक्ष्य’ स्वीकार किया, तभी से इनके नाम के पीछे लक्ष्य लगने लगा । इस प्रकार स्वामी जी ने श्री आत्माराम लक्ष्य के हृदय में सुप्तावस्था में स्थित जाति सुधार भावना को पूर्णतया जागृत कर दिया । स्वामी जी के उपदेशों एवं आदेशों से प्रेरित हो श्री आत्माराम जी ने अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य रैगर जाति की सेवा अर्थात् जाति उद्धार ही बना लिया था । इस प्रकार श्री आत्माराम जी लक्ष्य जाति उद्धार के लिए लक्ष्य लेकर निकल पड़े । गाँव-गाँव में जा-जाकर श्री आत्माराम जी ने सत्संगों के माध्यम से जाति को सुधार सम्बंधी मार्ग पर चलने का प्रचार करने लगे । आत्माराम जी का जीवन बहुत सादा एवं राष्ट्रवादी भावनाओं से पूर्णतया ओत-प्रोत था । भगवाँ वस्त्र न पहनने पर भी सभी जगह स्वामी जी कहलाये जाते थे । वे हमेशा खद्दर के वस्त्र ही पहनते थे एवं सिर पर खादी की टोपी लगाते थे ।
स्वामी जी ने आंधी थौलाई में एक विशाल सत्संग बुलाने की इच्छा लेकर दिल्ली में पदार्पण किया । उस समय दिल्ली के रैगर बंधुओं में दुषित वातावरण था । सारा समाज दो मुख्य धड़ों मे बटा हुआ था । दोनों में आपस में तीवृ कटूता एवं दूशमनी का साम्राज्य था । यही नहीं बल्की दोनों दलों में आपस में मारपीट की घटना घटित होती रहती थी । दिल्ली की पंचायत रूणिवादी पंचों के हाथ में थी । सनातन-धर्मियों (सत्संगीयों) ने समय-समय पर पंचायत के ढाचें को सुधारने का प्रयास किया । यह लोग चाहते थे कि पंचायत का नियमित रूप से आय-व्यय रखा जाए और समय-समय पर जॉच-पड़ताल कराई जाए । इन्हीं कारणों वश समाज में एक तनावपर्ण परिस्थिति थी । ऐसे समय जबकि एक वर्ग के लोग दूसरे वर्ग द्वारा संचालित किसी भी कार्य का इसीलिए विरोध करते थे कि यह प्रस्ताव दूसरे वर्ग का है स्वामी जी का पदार्पण विशेष महत्वपूर्ण था । इन्होंने यहाँ की तनाव एवं कटुतापूर्ण परिस्थितियों का पूर्णतया अध्ययन करने के उपरान्त एक सफल प्रयास किया जिससे दूषित एवं घृणित, वैमनस्यपूर्ण वातावरण के स्थान पर सौहार्द्रपूर्ण, प्रेम, शांति एवं जातीय सुधारक वातावरण की स्थापना की जा सके ।
सर्वप्रथम इन्होंने अपने विचार को अपने गुरू-भाई सत्संगीयों के सन्मुख रखा जिन्होंने पूर्ण सहयोग देने का आश्वासन दिया एवं प्रेरित किया कि स्वामी जी अन्य रैगर बन्धुओं से भी मिलें । स्वामी आत्माराम जी मोहनलाल पटेल जी से तत्कालीन पंचायत के प्रधान थे से मिले एवं उन्हें अपने विचारों से अवगत कराया । पटेल जी ने इस कार्य में आशातीत उत्साह का प्रदर्शन किया । इस प्रकार स्वामी जी ने आर्य समाजियों एवं सत्संगीयों के बीच में सौहार्द्रपूर्ण वातावरण उत्पन्न करने में एक कड़ी का काम किया । उन्होंने रैगर समाज के नव युवक वर्ग को एकत्रित किया और उनको जातिय सुधार कार्यों में उत्साह के साथ भाग लेने को प्रेरित किया ।
स्वामी आत्माराम जी लक्ष्य के अथक परिश्रम एवं प्रेरणा से दिल्ली स्थित रैगर समुदाय एक व्यक्ति (स्वामी जी) के नेतृत्व में आ गया था । इन्हीं की प्रेरणा से मार्च 1944 में एक दिल्ली के कार्यकर्ताओं की बेठक आंधी थौलाई में सत्संगनुमा विशाल जलसा मनाने के उद्देश्य निमित श्री बिहारी लाल जाजोरिया के निवास स्थान पर स्वामी आत्माराम जी की अध्यक्षता में हुई । जहा स्वामी जी ने नवयुवकों का आह्वान किया कि आपसी कहल का त्याग कर जातिय सुधार कार्यों में कन्धें से कन्धा मिलाकर कार्य करे । इस समय एक दिल्ली प्रांतीय रैगर युवक संघ नामक संस्था का जन्म हुआ । आगे चल कर जिसको स्थायी रूप दे दिया गया था । जिसका प्रथम चुनाव निम्न प्रकार से था :-
प्रधान – श्री मोहन लाल जी पटेल, उप प्रधान – श्री रामस्वरूप जी जाजोरिया, उप प्रधान – श्री ग्यारसा राम चान्दोलिया, मंत्री – डॉ. खूबराम जी जाजोरिया, प्रचार मंत्री – श्री कंवर सैन मौर्य, कोषाध्यक्ष – श्री प्रभुदयाल जी रातावाल इनके अलावा लगभग 40 कार्य-कारिणी के सदस्य भी निर्वाचित किए गए ।
आंधी थौलाई में जलसा न कर एक अखिल भारतीय स्तर पर रैगर महासम्मेलन को बुलाने के लिए निश्चय किया गया । महासम्मेलन के लिए आंधी थौलाई जैसे छोटे से गांव को जो रेल्वे स्टेशन से भी पर्याप्त दूरी पर हे एवं अन्य सम्बंधित कठिनाई भी थी आदि कई कारणों को दृष्टि में रखते हुए इस स्थान को महासम्मेलन के लिए अनुपयुक्त समझा गया । तत्पश्चात् उक्त गांव के स्थान पर ‘दौसा’ नगर उपयुक्त समझा गया । इस संघ की ओर से ही डॉ. खूबराम जी जाजोरिया एवं श्री आशाराम जी सेवलिया का एक शिष्टमण्डल दौसा नगर में महासम्मेलन की स्थिति जांचने के लिए भेजा गया । इसके पश्चात् इस संघ के अंतर्गत एक शिष्टमण्डल सर्व श्री नवल प्रभाकर एंव श्री कंवर सैन मौर्य का जावला तथा परबतसर के रैगरों पर होने वाले अत्याचारों की जॉच के लिए भेजा गया जहां उन्हें पूर्णतया सफलता प्राप्त हुई ।
स्वामी आत्माराम जी लक्ष्य दौसा महासम्मेलन के स्वागताध्यक्ष थे । एवं इस सम्मेलन का आयोजन उन्हीं की प्रेरणा से हुआ था । सवागताध्यक्ष होने पर तो सारा कार्य ही इनके कन्धों पर था । महासम्मेलन को पूर्णतया सफल बनाने में इन्हें अथक प्रयत्न करना पड़ा । उपस्वागताध्यक्ष श्री नवल प्रभाकर जी ने भी इनका पूर्ण सहयोग दिया एवं कन्धें से कन्धा मिलाकर कार्य किया ।
भारतवर्ष में सभी स्थानों पर जहां भी रैगर बंधु रहते थे वहां पर स्वर्णों के द्वारा अत्याचार हो रहे थे । राजस्थान के तो गांव-गांव में सजातीय बंधुओं पर सभी स्वर्ण हिन्दुओं का दुर्व्यवहार हो रहा था । स्वामी आत्माराम जी लक्ष्य ने गांव-गांव में जाकर जागृति का मंत्र फूंका जिसके फलस्वरूप इन्हें कई प्रकार की यातनाओं का सामना करना पड़ा । दौसा महासम्मेलन एंव जयपुर महासम्मेलन जो इनके अथक प्रयास के ही प्रतिफल थे, के पारित प्रस्तावों का प्रचार करने लगे । इनके जीवन काल मे बहुत दर्दनाक एंव हृदयस्पर्शी घटनाएं घटित हुई लेकिन उन सभी घटनाओं का वर्णन न कर केवल एक दो महत्वपूर्ण घनाओं का वर्णन ही पर्याप्त होगा ।
कनगट्टी (होलगर स्टेट) में स्वामी आत्माराम जी समाज सुधार सम्बंधी प्रचार-प्रसार करने हेतु वहाँ पहुँचे । स्थानीय रैगर बंधुओं ने बड़े उत्साह के साथ इनका स्वागत किया जिसे देख स्थानीय ठाकुर,जमींदार आदि स्वर्ण हिन्दू ईर्ष्या अग्नि से धधक उठे एवं उन्हें यह सहन न हो सका की तथा कथित नीच रैगर जाति का एक साधु का जलूस घोड़े पर उनके गांव में उनकी आँखों के सामने निकाला जाए एंव उनका यह साधु यहां के रैगरों को बेगार न देने, मूर्दा न घसीटने, मुर्दे की खाल न उतारने के लिए इन्हें उपेदश दिये । स्वर्ण हिन्दुओं ने सम्मिलित रूप में स्वामी जी के जलूस पर हमला कर दिया । लाठियों एवं जूतों का प्रहार किया गया । जिससे स्वामी जी का बहुत चोट आई लेकिन फिर भी स्वामी जी स्थानीय रैगर बंधुओं को धर्य प्रदान करते हुए सुधारवादी कार्यों में निरन्तर प्रवृत रहने एवं मुसिबतों का दृढ़ता एवं संगठन के साथ मुकाबला करने का उपदेश दिया ।
एक अन्य सबसे महत्वपूर्ण घटना स्वामी जी के जीवन कोट खावदा ग्राम (जयपुर राज्य) में घटीत हुई । यहा पर भी स्वामी जी स्थानीय रैगर बंधुओं की, जिन पर बेगार आदि न देने पर वहां के ठाकुर लोग अत्याचार कर रहे थे, रक्षाहेतु वहां पहुंचे । स्वामी जी ने स्थानीय स्वर्णों को समझाने का प्रयास किया । साथ ही उन्होंने रैगर बंधुओं को धेर्य प्रदान करते हुए अपने सुधारवादी कार्यों का दृढ़ता से पालन करने का प्रचार किया । स्वर्ण हिन्दुओं को इनका प्रचार अच्छा नहीं लगा जिसके परिणाम स्वरूप वहां के जागीरदारों ने इनको नजरबन्द कर लिया एवं इनके साथ दुर्व्यवहार एवं मार-पीट की गई । लगभग 24घंटे तक इनको काठ (जेल) (एक विशेष प्रकार की सजा दोनों टांगों को पर्याप्त दूरी पर रखा जाता है) दे दिया गया । इस पर भी स्वामी जी ने धैर्य को नहीं छोड़ा स्वामी जी कभी भी इन नाना प्रकार की यातनाओं से अपने ध्येय से पदच्युत नहीं हुए क्योंकि इनका एक मात्र लक्ष्य जाति उत्थान, हमेशा इनके समक्ष बना रहता था ।
जयपुर महासम्मेलन के समय ही इनका स्वास्थ्य खराब हो गया था । स्वामी जी के स्वास्थ्य खराब होने का एक कारण यह था कि उन्होंने कभी भी अपने स्वास्थ्य की ओर ध्यान नहीं दिया । जाति हित के प्रबल चितेरे को अपने स्वास्थ्य का ध्यान हो भी केसे सकता था । जयपुर महासम्मेलन को सफल बनाने हेतु स्वामी जी ने राजस्थान के गांव-गांव में पद यात्रा की । दौसा सम्मेलन के उपरांत काण्डों में स्वामी जी को बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा । स्वामी आत्माराम जी ने इस महासम्मेलन की समाप्ति पटरी मंगलानन्द जी को जो महाराज ज्ञानस्परूप जी के परम शिष्यों में से एक थे एवं उस समय हैदराबाद (सिंध) में पढ़ा करते थे, को अपने उपचार के लिए रोका । उनके आदेशानुसार श्री मंगलानन्द जी वहां पर उनके साथ रूक गए । जयपुर से ज्येष्ठ मास में दिल्ली में पहुँचे । दिल्ली में महाराज ज्ञानस्परूप जी के शिष्यों ने इनकी बहुत सेवा की एवं इनका इलाज कराया । स्वामी जी का ईलाज आयुर्वेदिक औषधालय तिबिया कालेज में वहां के श्री चन्द्रशेखर शास्त्री नामक योग्य वैद्य द्वारा हुआ लेकिन अन्तत: इन्हें स्वास्थ्य लाभ नहीं हो सका । विपरीत इसके इनके रोग में निरन्तर वृद्धि होती रही । तत्पश्चात् स्वामी आत्माराम जी को अपनी रुगणावस्था में भी जातिय सुधार कार्यों में भाग लेने की इच्छा बनी रहती थी । दिल्ली के स्वामी जी मंगलानन्द जी के साथ जयपुर अजमेर रूकते हुए’ब्यावर’ में पहुँचे । ब्यावर में स्वामी जी श्री सूर्यमल जी मौर्य एंव श्री रामचन्द्र जी पवार आदि महानुभावों के यहां विश्राम किया । वहाँ स्वामी जी की चिकित्सा होने लगी लेकिन कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई । कुछ समय ब्यावर में रूकने के पश्चात् हैदराबाद (सिंध) गये वहां स्वामी जी के आश्रम पर इनकी चिकित्सा होने लगी । वहाँ पर इनकी चिकित्सा एक प्रसिद्ध राजपूत वैद्य से कराई गई । उन्होंने इनका ईलाज किया एवं स्वामी जी को विश्वास दिलाया कि वे शीघ्र ही ठीक हो जायेगें लेकिन एकान्त में श्री मंगलानन्द जी को बताया कि इनका यह संग्रहणी रोग लाइलाज हो गया है । ओर के चार मास में इस नश्वर संसार को छोड़कर जायेंगे । इससे मंगलानन्द जी पर बज्रपात सा हुआ लेकिन फिर भी ईश्वर पर भरोसा करते हुए अपने हृदय को धैर्य प्रदान किया एवं इस तथ्य को स्वामी जी से छिपाये रखा ।
इसके पश्चात् स्वामी आत्माराम जी पुन: हैदराबाद से जयपुर श्री मंगलानन्द जी के साथ पधारे । इस समय उनके हालात नाजुक दौर से गुजर रहे थे । जयपुर में स्वामी जी श्री लालाराम जलुथिरिया चांदलोल गेट के निवास स्थान पर रूके श्री लालाराम जी ने भी इनकी सेवा करने में भरसक प्रयत्न किया खतरनाक स्थिति में थे । मरणासन अवस्था में जब इन्हे ऐसा विश्वास हो गया कि वे अब इस संसार में केवल थोड़े समय के अतिथि है तो तब स्वामीजी ने अपने निकटतम साथी श्री कॅवरसेन मौर्य को याद किया श्री कॅवरसेन मौर्य पर उनका अत्यधिक प्रेम था एवं इन दौनों ने समाज कार्यो यथा प्रचार एवं काण्ड़ो में कन्धे से कन्धा मिलाकर कार्य किया था । स्वामी जी को श्री कॅवरसेन जी से अपने अधूरे कार्यो की पूर्ति की आशा थी । स्वामी जी द्वारा श्री कॅवरसेन जी को तार दिया गया । तार पाते श्री कॅवरसेन मौर्य जी ने दिल्ली से प्रस्थान किया एवं जयपुर में पहॅुच कर स्वीमा जी के दर्शन किये । स्वामी जी ने श्री कंवरसेन मौर्य जी को बताया कि वह सम्भवत: इस संसार के थोड़े ही दिनों के ही महमान है एवं सारा कार्य ही अधूरा है । इस प्रकार स्वामीजी समझते थे कि जिस ‘लक्ष्य’ को प्राप्त करने की प्रतिभा लेकर महाराज स्वामी ज्ञानस्वरुप जी के आशिर्वाद से उस क्षैत्र में पदार्पण किया उसमें सफलता नहीं मिल सकी । इस बात का उन्हे बहुत दू:ख था । वस्तुत: स्वामी आत्मारामजी ‘लक्ष्य’ अपने जीवन पर के लक्ष्य की प्राप्ति में पूर्ण रूपेण सफल रहे । लेकिन फिर भी उन्होंने वसीयत के रुप में अपने जीवन को तीन अन्तिम अभिलाषा व्यक्त की जिन्हे स्वामीजी अपने जीवन काल में ही पूरा करना चाहते थे लेकिन कर नहीं सके थे । इन्होंने श्री कंवरसेन जी को बताया कि सर्वप्रथम तो रैगर जाति का एक विस्तृत इतिहास लिखा जाना चाहिये, दूसरे जाति के समाचार पत्र का महत्व बताते हुए अभिलाषा प्रकट की कि रैगर जाति का अपना एक समाचार पत्र हो । तीसरे रैगर जाति के उच्च शिक्षा का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिए रैगर छात्रावास का निर्माण होना चाहिए । श्री कंवरसेन मौर्य प्रचार मन्त्री अखिल भारतीय रैगर महासभा ने पूर्णतया स्वामी जी को विश्वास दिलाया एवं यथाशक्ति अधूरे कार्य को पूर्ण करने का आश्वासन दिया ।
परन्तु विधाता का विधान कुछ और ही था रैगर जाति का समय प्रयत्न, बहुत से लोगों की सेवा एवं प्रसिद्ध वैद्य डाक्टरों की औषधियॉ बेकार हो गई । वह दिन भी आया जब जाति का वह सितारा जिसने बहुत से लोगों के मन में ज्योति जगाई एवं इन्हें समाज सेवा के लिये प्रेरित किया था । 20 नवम्बर बुधवार प्रात: काल 1946 को उस ‘त्याग’ मूर्ति के जिसने अपना सारा जीवन अपने ‘लक्ष्य’ की पूर्ति में लगा दिया प्राण पखेरु अनन्त गगन की ओर उठ गए । रैगर जाति को प्रकाशित करने वाला वह सूर्य अस्त हो गया और हो गया उसके साथ ही रैगर जाति की सामाजिक क्रान्ति का स्वर्णिम अध्याय ।
(साभार- रैगर कौन और क्या ?)