Friday 18 April 2025 5:16 AM
सामाजिक सशक्तिकरण एवं वित्तीय साक्षरता विषय पर सेमिनार, गरीबी अभिशाप नहीं, बेहतर नियोजन जरुरी – सूर्यकांत शर्माकांस्टेबल कन्हैया लाल रेगर को राजस्थान पुलिस स्थापना दिवस पर मिला गौरवपूर्ण सम्मानझालावाड़ महिला कांस्टेबल श्रीमति लक्ष्मी वर्मा को मिला गौरवपूर्ण सम्मान, राजस्थान पुलिस स्थापना दिवस पर हुआ भव्य कार्यक्रम का आयोजनकालीसिंध तापीय विद्युत परियोजना के प्रशासनिक भवन के सभागार कक्ष में  बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के 135 वें जयंती कार्यक्रम सम्पन्नडॉ. भीमराव अम्बेडकर की 134 वीं जन्म जयन्ती समारोह सम्पन्न, विभिन्न चौराहों पर सर्व समाज द्वारा किया गया भव्य स्वागत
Samajhitexpressनई दिल्लीपंजाबभारतमध्य प्रदेशमहाराष्ट्रराजस्थान

भौतिकतावादी युग में टूटते परिवार

दिल्ली, समाजहित एक्सप्रेस (रघुबीर सिंह गाड़ेगांवलिया) l वर्तमान में हम सभी भौतिकतावादी युग में जी रहे है । हमारा सामाजिक परिवेश बदल रहा है l जहाँ पहले सयुंक्त परिवार होते थे, और परिवार मे बाल विधवा, अनाथ बच्चे, व बुजुर्ग सभी का समय अच्छा गुजर जाया करता था l कोई किसी को बोझ नहीं समझता था l सामाजिक व्यवस्था सुचारु रूप से बनी हुई थी, जिसमे परिवार मे एक दूसरे के प्रति स्नेह व सद्रभाव का भाव होता था l एक दूसरे के प्रति प्रेम की असीम गंगा बहती थी l युवा होते बच्चो के लिए सामाजिक नियम होते थे, सभी लोग सामाजिक मर्यादा मे रहते थे l

धीरे-धीरे समाज की परिभाषा बदल गई और हम अब एकल परिवार मे रहने लगे l जिससे हमारे समाजिक मूल्यो व जीवन मूल्यो के मायने बदल गये l सामाजिक मूल्यो का विघटन हो गया l युवा पीढ़ी उदन्ड होती जा रही है l मर्यादाएं टूट रही हैं, लावारिस नवजात बच्चे सडको पर पडे मिलते हैं l वृद्ध परिवार के लिए बोझ बन गया l भौतिकवाद का दूसरा नाम भोगवाद भी है । यानी खाओ, पीओ, मस्त रहो । यह भौतिकतावादी दृष्टिकोण हमें सामूहिकता से एकात्मकता की ओर धकेले जा रहा है । पश्चिमी सभ्यता के आगोश में समाये हुए आभाषी आनंद की दुनिया में हिचकोले ले रहे हैं और इन सब में हमारे संस्कार और संस्कृति का पतन हो रहा है ।

आज एक परिवार के सदस्य कहने के लिए तो एक छत के नीचे रहते हैं, लेकिन भौतिक संसाधनों और उपकरणों ने इनके बीच कहीं न कहीं कुछ संवेदनशून्यता की लकीरें खींच दी हैं । मानव अब स्वयं में खोया-खोया नजर आता है । जरा सोचिए हम क्या थे, क्या हो गए और क्या होते जा रहे हैं । संसार इतना संकुचित होता नजर आ रहा, इसमें हम स्वयं के लिए भी पर्याप्त जगह नहीं, माता-पिता की सेवा करने की भावनाएं छिपती जा रही है । आधुनिक सुख-सुविधाओं के उपकरणों से लैस छह फीट के कमरे में टीवी के सामने वृद्ध माता-पिता को आरामगाह उपलब्ध कराकर लोग अपना धर्म और कर्म पूरा हुआ मान लेते हैं । लेकिन फुर्सत के दो पल उनके साथ बैठकर बिताने को नहीं है । बेचारे लाचार मां-बाप बेजान अनुभूति के साथ अपनी शेष सांसे गिन रहे होते हैं, क्या यही हमारी संस्कृति है । इस विषय पर एक-एक मनुष्य को विचार करना होगा ।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also
Close